Table of Contents
- पूना पैक्ट के बाद बिहार में दलित राजनीति:
- ‘बाबू ‘जी और ‘बाबा साहेब’का राजनीतिक विरोधाभास:
- “बाबू” और “बाबा” मिलकर चलते तो बिहार ही नहीं देश की राजनीति बदल जाती:
- बिहार में दलित राजनीति के प्रमुख चेहरे:
- 1-मीरा कुमार:
- 2.राम विलास पासवान:
- 3-चिराग पासवान:
- 4:-रामचंद्र पासवान:-
- 5-छेदी पासवान:-
- 6-डॉ0 आलोक कुमार सुमन:
- 7-विजय कुमार:
- 8-जीतन राम मांझी:
- क्या कहती है एससी आयोग की रिपोर्ट बिहार में:
- कई क्षेत्रों में पीछे हैं बिहार के दलित:
चुनाव आयोग ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि बिहार में विधानसभा के चुनाव नवंबर 2020 तक हर हाल में संपन्न हो जाने चाहिए.इसलिए सोचा कि बिहार में दलित राजनीति पर कुछ लिखा जाए.सुनने में आ रहा है कि रामविलास पासवान अपने बेटे चिराग पासवान को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने के लिए प्रयास कर रहे हैं.बिहार में दलित राजनीति के कई नेता हुए हैं,मगर क्या उनकी राजनीति बिहार और देश के दलितों के लिए हितकर रही है?साथ ही ये भी विश्लेषण करना है कि पूना पैक्ट कितना सफल रहा अछूतों के सामाजिक उत्थान में.क्योंकि जिन नेताओं का जिक्र में यहाँ करने वाला हूँ,बेसक राजनीतिक दलों के लिए वे दलित वोट बैंक का सबसे बड़ा चेहरा रहे हों,मगर सुरक्षित सीटों से चुनकर गए दलित सांसद और विधायक हिन्दुत्व की गुलामगिरी में धंस गए.और डॉ0 अम्बेडकर का त्याग मिट्टी में मिला प्रतीत हो रहा है.

आजादी के बाद भारत की संसद में बाबू जगजीवन राम बिहार में दलित राजनीति के दलित कोटे के सबसे प्रभावशाली लीडर हुए हैं.कांग्रेस ने उस वक्त बाबू जगजीवन राम को खास तवज्जो दी ,जिस वक्त डॉ0 अम्बेडकर संपूर्ण भारत में दलित अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे.डॉ0 अम्बेडकर ने ब्रिटिश हुकूमत से भारत के अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था को मनवा लिया था.मगर गांधी ने दलितों के इस अधिकार को खत्म करने के लिए आमरण अनशन कर दिया.जिसका परिणाम ये हुवा कि पूना पैक्ट करने को डॉ0 अम्बेडकर मजबूर हो गए.पूना पैक्ट ने दलितों के लिए भारत की संसद और विधानसभाओं में सीटों का आरक्षण लागू करवाया.मगर पूना पैक्ट दलितों की कुछ परिवारों की जागीर बन गयी.

पूना पैक्ट के बाद बिहार में दलित राजनीति:
पूना पैक्ट के बाद देश की संसद और विधानसभाओं में दलित प्रतिनिधि चुनकर आने लगे.जिनको कभी वोट देने का अधिकार भी नहीं था,वो अब संसद और राज्य विधानसभाओं में विराजमान होने लगे.पूना पैक्ट के बाद भारत शासन अधिनियम 1935 के तहत देश में सरकार चुनी गई .अनुसूचित जातियों के लिए विधान मंडलों में सीटें आरक्षित कर प्रतिनिधित्व दिया गया.बाबू जगजीवन राम पूना पैक्ट के बाद बिहार कौंसिल के सदस्य नामित किये गए.बिहार में दलित राजनीति से कदम रखते हुए वे आजादी के बाद देश के उपप्रधानमंत्री भी बने.

‘बाबू ‘जी और ‘बाबा साहेब’का राजनीतिक विरोधाभास:
20 वीं सदी हिंदुस्तान में आंदोलन और क्रांति की सदी रही है.एक ओर पूरा भारतवर्ष ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध स्वतंत्रता की जंग लड़ रहा था,दूसरी तरफ अकेले डॉ0 अम्बेडकर अछूतों के हितों और स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रहे थे.
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1931 में बाबू जगजीवन राम कलकत्ता(कोलकाता) विश्वविद्यालय से बीएससी की डिग्री लेकर बिहार में दलित राजनीति का चेहरा बनकर राजनीति में कदम रख चुके थे.ब्रिटिश वफादार प्रांतीय हुकूमत तथा राष्ट्रवादियों को बाबू जगजीवनराम को अपने- अपने खेमे में मिलाने के प्रयास हो रहे थे.इसके पीछे के सच को जाने बिना डॉ0 आंबेडकर और बाबू जगजीवन राम के राजनीतिक विरिधाभास को समझना कठिन होगा.दरअसल अंग्रेज तो फूट करो कि नीति पर चल ही रहे थे,मगर कांग्रेस और गांधी को डॉ0 अम्बेडकर की काट चाहिए थी इसलिए बाबू को अपनाने की होड़ लगी थी.नतीजा ये हुवा कि बाबू लगातार चुनाव जीतते रहे,और बाबा साहेब एक भी लोकसभा चुनाव नहीं जीत पाए.
“बाबू” और “बाबा” मिलकर चलते तो बिहार ही नहीं देश की राजनीति बदल जाती:
राष्ट्रवादी बाबू जगजीवन राम को अपने खेमे में इसलिए रखना चाहते थे,ताकि वे बाबू जी को डॉ0 अंबेडकर के विरुद्ध एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में उपयोग कर सकें.क्योंकि डॉ0 अम्बेडकर भारत के दलित,अछूत,पिछड़े जाति के प्रबल समर्थक एवं उनके लिए पृथक राजनीतिक अधिकारों की मांग कर रहे थे.जबकि बाबू जी का इस विषय में समझौतावादी या उदारवादी दृष्टिकोण था जो राष्ट्रवादियों के लिए लाभकारी था.,यही डॉ0 अम्बेडकर और बाबू जगजीवन राम की परस्पर विचारधारा में विरिधाभास था.ये विरोधाभास न बिहार में दलित राजनीति के लिए हितकर हुआ और न ही देश के दलितों के लिए हितकारी साबित हुआ.
बिहार में दलित राजनीति के प्रमुख चेहरे:
बाबू जगजीवनराम आजादी के बाद बिहार में दलित राजनीति के प्रमुख नेता रहे हैं.उंसके बाद उनकी उत्तराधिकारी के तौर पर श्रीमती मीरा कुमार का नाम आता है.श्रीमती मीरा कुमार लोकसभा की पहली महिला स्पीकर रहीं हैं
1-मीरा कुमार:
श्रीमती मीरा कुमार बिहार की दलित राजनीति में ही नहीं ,वरन भारत की राजनीति में भी एक अहम स्थान रखती हैं.1985 से उन्होंने अपना राजनीतिक सफर शुरू किया.बिजनौर( यू0पी0) संसदीय सीट पर 1985 में उपचुनाव हुए जिसमें उन्होंने जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान को हराकर पहली बार संसद में कदम रखा.बेहद मृदुल स्वभाव की मीरा को भारत में लोकसभा की प्रथम स्पीकर बनने का गौरव भी प्राप्त हुवा है.

देश के प्रख्यात दलित नेता और उपप्रधानमंत्री रहे बाबू जगजीवन राम की इस लाडली ने सामाजिक, राजनैतिक और प्रशासनिक, सभी मोर्चों पर अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित की है। शायद वे देश की इकलौती महिला नेत्री हैं जिन्हें यूपी, दिल्ली और बिहार जैसे तीन तीन राज्यों से लोकसभा पहुंचने का गौरव हासिल है। वर्ष 2017 में संयुक्त विपक्ष ने उन्हें मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के खिलाफ प्रत्याशी भी बनाया था।
2.राम विलास पासवान:
लोकजनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष राम विलास पासवान इस समय हाजीपुर से सांसद हैं. बाबू जगजीवन और मीरा कुमार के बाद वर्तमान में रामविलास पासवान और उनका परिवार बिहार की सुरक्षित सीटों से जीतकर लगातार केंद्र सरकार में 1989 से मंत्री पद की मलाई खा रहे हैं.जहां तक मुझे याद है रामविलास पासवान 1989 से लगातार केंद्र में मंत्री बनते आ रहे हैं,चाहे सरकार किसी भी दल की हो रामविलास पासवान हमेशा कैबनेट मंत्री बने हैं.भारतीय राजनीति में जब से गठबंधन की सरकारें बनने लगी हैं,रामविलास पासवान हर गठबंधन के साथ दोस्ती कर लेते हैं,और मंत्री पद पक्का कर लेते हैं.

विडंबना देखिए लोकसभा में 131 सांसद सुरक्षित सीटों से जीतकर आते हैं,मगर उनके सामने देश में दलितों के संवैधानिक अधिकार आरक्षण पर लगातार कैंची चल रही है.और ये नेतागण चुपचाप संविधान का चीरहरण देख रहे हैं.
3-चिराग पासवान:
चिराग पासवान लोकजनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो राम विलास पासवान के पुत्र हैं.2019 के लोकसभा चुनाव में ये जमुई सुरक्षित सीट से सांसद हैं.

4:-रामचंद्र पासवान:-
रामचंद्र पासवान राम विलास पासवान के छोटे भाई हैं .ये समस्तीपुर आरक्षित सीट से लोजपा के सांसद हैं.
5-छेदी पासवान:-
सासाराम सुरक्षित सीट से भाजपा के सांसद हैं.

6-डॉ0 आलोक कुमार सुमन:
गोपागंज सुरक्षित सीट से जेडीयू के सांसद हैं.

7-विजय कुमार:
गया सुरक्षित सीट से जेडीयू के सांसद हैं.
8-जीतन राम मांझी:
जीतन राम मांझी बिहार में महादलित समुदाय से आते हैं.ये बिहार के पहले दलित मुख्यमंत्री रहे हैं.23 वें मुख्यमंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल 20-05-2014 से 20 फरवरी 2015 तक रहा.उन्होंने हिंदुस्तान अवाम मोर्चा(HAM) नई पार्टी बनाई है.मांझी बिहार में दलित राजनीति के बढ़े नेता माने जाते हैं.

क्या कहती है एससी आयोग की रिपोर्ट बिहार में:
आजादी के बाद से बिहार में दलित राजनीति कई नेता राजनीति में सक्रिय रहे है.बिहार में 6 लोकसभा की आरक्षित सीटें हैं.केंद्र में मंत्री भी रहे हैं.दलित मुख्यमंत्री भी बिहार में रह चुके हैं.फिर भी बिहार का दलित महादलित क्यों बना है? अभी तक ये सोचने की बात है.देखते हैं क्या आंकडे बताए हैं एससी आयोग के अध्यक्ष रामशंकर कठेरिया ने:
एससी आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष राम शंकर कठेरिया ने बिहार में एससी पर हो रहे अत्याचारों पर चिंता जताते हुए कहा कि बिहार में दलितों पर हो रहे आत्याचार के मामले देश के औसत से काफी अधिक हैं. देश में इनका औसत 21 प्रतिशत है जबकि बिहार में ये आंकड़ा 42 प्रतिशत पर है. वहीं उन्होंने ऐसे मामलों पर बिहार में सजा के प्रतिशत पर भी चिंता जताते हुए कहा कि बिहार में सजा का रेट सिर्फ 4 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय औसत से काफी कम है. उन्होंने कहा कि बिहार में थानों के स्तर पर एफआईआर काफी कम होती हैं इस वजह से ऐसे मामले कोर्ट में दर्ज किए जाते हैं.
कई क्षेत्रों में पीछे हैं बिहार के दलित:
आयोग के अध्यक्ष ने और आंकड़े पेस किये हैं-
एससी आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामशंकर कठेरिया ने एससी महिलाओं की साक्षरता दर पर भी चिंता जताई. उन्होंने कहा कि बिहार में एससी महिलाओं की शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया जाता, जिस वजह से इस मानक में भी बिहार पीछे है. वहीं स्कूलों से एससी के बच्चों का ड्रॉप आउट भी देश में सबसे अधिक बिहार का ही है. कठेरिया ने कहा कि दलितों की योजनाओं के लिए आने वाले बजट का पैसा भी राज्य में पूरा खर्च नहीं हो पा रहा है, हालांकि मुख्य सचिव ने आश्वासन दिया है कि इन सब मानकों में सुधार किया जाएगा.
कई बड़े नामधारी और पदधारी दलित नेताओं की फौज बिहार में खड़ी है.मगर बिहार में महादलित और दलितों के सामाजिक स्थिति में खास बदलाव नहीं आया है.राजनीतिक आरक्षण कुछ परिवारों तक ही सिमट कर रह गया है.खासकर पासवान परिवार .पूना पैक्ट जैसे इन्हीं परिवारों के लिए किया गया था.सोच बदलो समाज जगाओ।
Disclaimer… ये आर्टिकल लेखक के निजी विचार हैं.