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आजादी के बाद के बाद के युवा

भारत की आजादी के बाद भटकते युवा ।जिम्मेदार कौन?

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like  भारत की आजादी से पहले का युवा वर्ग

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आजादी के वीर सपूत

हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के। फिल्म जागृति का यह गीत देशभक्ति को जगाने के लिए आज के युवा वर्ग के लिए प्रेरणादायक  संदेश देता है ।शताब्दियों की गुलामी से मुक्त होने के लिए कितनी कुर्बानियां और बलिदान भारत की धरती के वीरों ने दी है। देश का कोई ऐसा राज्य, जिला अछूता नहीं रहा होगा जहाँ से  आजादी की जंग में लोग शहीद न हुए हों।”हम लाये है तूफान से कश्ती निकाल के”पुनः ये संदेश देने की इतनी जल्दी क्या आन पड़ी थी?इसको आज के युवा वर्ग को समझने की जरूरत है।  सन 1857 से उठी स्वतन्त्रता संग्राम की चिंगारी 15 अगस्त 1947 को स्वाधीन भारत की लौ जला कर लाई ।इस महान दिवस को प्राप्त करने में हमको 90 बरस का समय लगा है। हैरान रहे होंगे अंग्रेज और सारी दुनिया के लोग, क्योंकि 300 वर्षों से अधिक समय तक ब्रिटिश गुलामी की जंजीरों से जकड़े हुए हिंदुस्तान को हमारे पूर्वजों ने मुक्त कर दिखलाया। 

      इस आजादी को हासिल करने में युवा वर्ग का अहम योगदान रहा है। क्रांतिकारी संगठानों का  नेतृत्व युवा वर्ग के हाथों में था और युवा वर्ग ने अपनी जवानी की ऊर्जा को, खून को आजादी की जंग में बहा दिया। अधिकांश क्रांतिकारी युवा 25 से 30 साल की उम्र में ही शहीद हो गए थे। आज देश में 70% से अधिक संख्या युवाओं की है इसलिए देश के निर्माण में उनकी भूमिका अहम हो जाती है। लेकिन तस्वीर कुछ और ही नजर आती है 

आजादी के बाद भटकता भारत का युवा ।

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आजादी के बाद  के युवा।

 

जिनके कंधों पर देश को जगश्रेष्ठ  बनाने का भार है ,वे भीड़ तंत्र का हिस्सा बनकर मृगमरीचिका का  शिकार हो रहे हैं। जिनके कंधों पर संविधान को बचाने की ,लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी है ,वह आज आंखों में अंधविश्वास की पट्टी बांधकर कंधों में  कांवड़ डालकर आस्था की आड़ में देश में उत्पात मचा रहा है ।

         ये सायद इसलिए भी घटित हो रहा है कि हमारी सरकारें युवाओं के लिए आजादी के इन 72 वर्षों में कोई रास्ता खोज नहीं पाए हैं। उनके पास कोई राह और मंजिल है ही नहीं। फिर वह  गलत राह पर भटकने को मजबूर होगा ही, क्योंकि खाली दिमाग शैतान का घर होता है ।आज का युवा वर्ग उस नाव पर सवार है जिसकी एक ओर का खेवनहार धर्म और दूसरी ओर राजनीति है।जिस कारण वह भंवर में ही फंसता जा रहा है। गुलामी के दौर में एक लक्ष्य था सिर्फ आजाद भारत बनाना ।मगर आज लक्ष्य कई सामने है। जैसे विश्व गुरु भारत ,21वीं सदी का भारत, डिजिटल भारत ,स्वच्छ भारत ,मेक इन इंडिया . इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए युवाओं की भूमिका सुनिश्चित होनी चाहिए थी ।मगर इसके इत्तर युवा वर्ग को रंगों की राजनीति के चक्रव्यूह  में उलझाया जा रहा है। 

   दल-दल में धकेल रही हैं राजनीतिक पार्टियां।

           हम भारत के लोगों की जगह हिंन्दू,दलित, मुसलमान का आलाप हो रहा है। जिस प्रकार किसी चालक में मुक्त इलेक्ट्रान आवेश वाहक का कार्य करते हैं ,ठीक उसी तर्ज पर आज का युवा राजनीतिक दलों के लिए वोट बाहक का कार्य कर रहा है। भीड़ का हिस्सा बनाकर उसकी क्षमता के साथ हम इंसाफ नहीं कर रहे हैं। जब यही वोट वाहक अपने लिए रोजगार और काम मांगता है तो लाठी-डंडों से उसका स्वागत किया जाता है ।फिर यही लाठी खाने की आदत ही उनको गुनाह  और जुर्म की दुनिया में धकेल देती है ।राजनीतिक पार्टियां युवाओं की आवाज को अपने जय जय कार और नारों के लिए इस्तेमाल करती आ रही हैं ।जबकि वह आवाज गूंजती चाहिये थी भ्र्ष्टाचार से आजादी के लिए ,गरीबी हटाने के लिए ,बेरोजगारी हटाने के, लिए स्कूल अस्पतालों के निर्माण के लिए,बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए,अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए ,वो युवा आवाज उठनी चाहिए थी राजनीति के अपराधीकरण के विरुद्ध,वो युवा हुंकार गूँजनी चाहिए थी महिलाओं पर हो रहे शोषण के विरुद्ध,और वो युवा गूंज दहाड़नी चाहिए थी शादियों से देश को  जातिवाद के कलंक को मिटाने के लिए, और वह आवाज उठनी चाहिए थी रूढ़िवाद और पाखण्ड के खिलाफ,और वो युवागर्जना होनी चाहिए थी देश को एक सूत्र में पिरोने की। मगर यह कहां संभव हो सकता था जब खुद ही आज का युवा दल दल के कीचड़ में फंसा हुआ है ।अगर युवाओं से भरा हुआ देश इस वक्त अपनी समस्याओं के ऊपर विजय नहीं पा सका तो फिर बूढ़े भारत से उम्मीद करना बेकार होगा।  

    हिंसा  किसी समस्या का हल नहीं।

       कश्मीर के युवाओं के हाथ में पत्थर हैं तो गुजरात और यूपी के युवाओं के हाथों में भी लाठी और डंडे ।युवाओं को खुद ही  अपनी मंजिल तय करनी होगी। किसी के हाथों की कठपुतली बनकर उनके अच्छे दिन आने वाले नहीं हैं ।देश के भीतर जो भी समस्याएं हैं उनका हल कलम और स्याही से ही निकलेगा ना कि पत्थर और लाठी-डंडों से। क्योंकि पत्थर पूजने से ईश्वर नहीं मिलते तो पत्थर मारने से कौन सी जन्नत हासिल हो सकती है। यह हमारे युवाओं को ही तय करना है कि,उनके हाथ में कलम अच्छी लगेगी या पत्थर,लाठी,बंदूके, हाथ में कलम पकड़ने से भविष्य बेहतर होगा या बन्दूक से। यह उन को भलीभांति समझ लेना चाहिए ।देश तभी तरक्की कर सकता है जब हिंदुत्व की थाली में बंधुत्व की भरा हो।

 

आई0 पी0 ह्यूमन

स्वतन्त्र टिप्पणीकार

 

Ip human

I am I.P.Human My education is m.sc.physics and PGDJMC I am from Uttarakhand. I am a small blogger

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