हिन्दुस्तानी जीवन में जाति सबसे ज्यादा लेडूबू उपादान है। जो सिद्धान्त में उसे नहीं मानते वे भी व्यवहार में उस पर चलते हैं। जाति की सीमा के अन्दर जीवन चलता है, और सुसंस्कृत लोग जातिप्रथा के विरुद्ध हौले-हौले बात करते हैं, जबकि कर्म में उसे नहीं मानना नहीं सूझता ही नहीं ।
अगर उनका ध्यान उनके कर्मों की तरफ खींचा जाता है, जो कि अविश्वसनीय ढंग पर जाति के अनुरूप होते हैं, तो वे चिढ़ कर अपने विचार और अपनी बोली का हवाला देने लगते हैं। वास्तव में, जो लोग उनका ध्यान उनके जातिगत व्यवहार की ओर खींचते हैं, उन्हीं के विरुद्ध वे जातिगत मनोवृत्ति का आरोप लगाते हैं। वे कहते हैं कि जबकि वे सिद्धान्तों और व्यापक रूपरेखा के बारे में स्वस्थ बहस करने में लगे हैं, तो उनके आलोचक इस बहस में कर्म का कलुषित अंग घुसेड़ कर उसे दूषित कर देते हैं। उनका कहना है कि ये आलोचक ही जाति का वातावरण बनाते हैं। कौन जाने विचार और कर्म के बीच इतना विचित्र अलगाव, जो कि और किसी से अधिक भारतीय संस्कृति की विशिष्टता है, जाति के असर का ही परिणाम हो। जाति एक ऐसा चौखटा है जिसे बदला नहीं जा सकता। उसमें रहने के लिए बड़ी जबरदस्त पटुता, दुहरे, तिहरे या अनेक तरीकों से सोचना और काम करना नितान्त आवश्यक है।
जीवन के बड़े तथ्य जैसे जन्म, मृत्यु, शादी-ब्याह, भोज और अन्य सभी रस में जाति के चौखटे में ही होती हैं। उसी जाति के लोग इन निर्णायक कामों में एक-दूसरे की मदद करते हैं। ऐसे मौकों पर दूसरी जातियों के लोग किनारे पर रहते हैं, अलग और जैसे वे तमाशबीन हो शुरू ही से एक आम गलती से छुटकारा पा लेना चाहिए।
इधर के दशकों में देश के कई हिस्सों में कुछ अन्तर्जातीय काम हुए हैं। अव्वल तो, इस तरह के काम भोज की छोटी रसम की हद तक ही सीमित रहे और शादी-ब्याह और बच्चे होने के बड़े काम नहीं हुए। दूसरे, यह काम सिर्फ सतही तौर पर और भ्रान्तिजनक रूप में अन्तर्जातीय है। कभी-कभी ऊँची जातियों के विभिन्न समुदायों के बीच अन्तर्जातीय विवाह और भोज हो जाया करते हैं। सचमुच के सामूहिक काम के क्षेत्र में, ऊँची जाति और छोटी जाति के बीच, अगर और ज्यादा नहीं, तो कम से कम हमेशा जैसा बड़ा भेद बना हुआ है जब लोग अन्तर्जातीय विवाह इत्यादि की बात करते हैं, तो उनका मतलब सिर्फ ऊँची जाति के समुदायों के बीच विवाह से ही होता है।
यह साफ है कि जाति दुनिया में सबसे बड़ा बीमा कराना है ।जिसके लिए किसी को कोई औपचारिक अथवा नियमित बीमा-किस्त नहीं देनी पड़ती। जब सब कुछ काम नहीं आता, तो जाति का समैक्य हमेशा रहता है। वास्तव में, दूसरे तरीकों को काम में लाने के बहुत कम मौके आते हैं। जाति के अन्दर ही और अपने परिवार वालों में से ही लोग दोस्त बनाते हैं। जन्म, मृत्यु-कर्म, शादी और दूसरे रसम-रिवाजों, के वक्त इतने घनिष्ट समैक्य का लाजमी प्रभाव जीवन के दूसरे अंगों पर, जिसमें राजनीतिक जीवन भी शरीक है, पड़ता है। आदमी के मन और उसके बुनियादी विचारों को वही वास्तव में प्रभावित और करीब-करीब निश्चित करता है। राजनीतिक अंग तो आसानी से प्रभावित हो जाते हैं।
जब जीवन की सभी बड़ी और व्यक्तिगत घटनाओं के अवसर पर लगातार मेल जोल होता है, तब उस चौखटे के बाहर अगर राजनीतिक घटनाएँ हों, तो कुछ हास्यास्पद ही होंगी। किसी जाति के लगभग एक ही तरह से वोट देने पर जब लोग हैरान हो जाते हैं, तो वे ऐसे बनते हैं जैसे वे और किसी दुनिया से आये हों। कोई एक समुदाय जो एक-दूसरे के साथ ही पैदा होता है, शादी करता है, मरता है और दावत करता है, उससे और किस बात की आशा करनी चाहिए। रोजी कमाने और समान पेशे के इससे भी और ज्यादा निश्चयात्मक काम को मिला कर काम करने की इस भयानक सूची में जोड़ना चाहिए। जहाँ एक मानी में समान पेशा कुछ जातियों की निशानी नहीं रह गयी है, वहाँ भी, बेरोजगारी के विरुद्ध अपनी ही जाति की अनौपचारिक, प्रायः लुजलुज और अनमनी, पर बीमे की शर्तिया योजना चलती रहती है। अगर जाति की जाति एक साथ वोट नहीं करती, तो यह हैरानी की बात है। मतदान जाति से हट कर २०% के ऊपर, मुश्किल से अगर कभी हो तो होता है और वह भी तब जबकि जाति के एवज में कोई और सुरक्षा उपलब्ध हो।
भारतीय समाज के, यदि हजारों नहीं तो सैकड़ों जातियों में विभाजन से, जिनका जितना राजनीतिक उतना ही सामाजिक महत्त्व है, साफ हो जाता है कि हिन्दुस्तान बार बार विदेशी फौजों के सामने क्यों घुटने टेक देता है। इतिहास साक्षी है कि जिस काल में जाति के बन्धन ढीले थे। उसने लगभग हमेशा उसी काल में घुटने नहीं टेके हैं। हिन्दुस्तान के इतिहास को गलत ढंग से पढ़ना अब भी जारी है। विदेशी हमलों के दुःखदायी सिलसिले को, जिसके सामने हिन्दुस्तानी जनता पसर गयी, अन्दरूनी झगड़ों और छलकपट के माथे थोपा जाता है। यह बात वाहियात है। उसका तो सबसे बड़ा एकमात्र कारण है जाति। वह ९० प्रतिशत आबादी को दर्शक बना कर छोड़ देती है, वास्तव में, देश की दारुण दुर्घटनाओं के निरीह और लगभग पूरे उदासीन दर्शक ।
हजारों बरसों के बावजूद जातियाँ चल रही हैं। उन्होंने कुछ लक्षणों और रीतियों को जन्म दिया है। एक तरह का छटाव हो गया है जो कि सामाजिक रूप में भी उतना ही सार्थक है जितना कि सहज छँटाव के रूप में। व्यापार, दस्तकारी, खेती या प्रशासन * या सिद्धान्तों से सम्बन्धित कामकाज के हुनर पुश्तैनी हो गये हैं। कोई प्रतिभाशाली ही। ५४ हिन्दू बनाम हिन्दू
इनमें वास्तविक है। हुनर के इस जातिगत निर्धारण से कोई यह भी उम्मीद कर कि ऐसे परम्परागत छँटाव से बहुत फायदे निकलेंगे। यदि सभी सामाजिक हैसियत मिलती या आर्थिक लाभ होता, तो ऐसा हो सकता है, ऐसा नहीं है। कुछ हुनर अन्य हुनरों से अविश्वसनीय ढंग पर ऊंचे माने जाते हैं और उस सोढ़ी में खतम न होने वाली सीढ़ियों का सिलसिला लगा हुआ है। निचले हुनर की जातियों को नीच माना जाता है। वे लगभग बेजान लोथ के रूप में जम 1 जाते हैं। वे भंडार नहीं बन पाते कि जिससे राष्ट्र खुद को नूतन कर सके और नवस्फूर्ति प्राप्त कर सके। सर्वाधिक श्रेष्ठ हुनरों की तादाद की दृष्टि से छोटी जातिया स्वभावतः राष्ट्र को नेतृत्व प्रदान करती हैं। अपना बहुत ही स्वाभाविक अधिकार जमाये रखने के लिए वे छलकपट से उबलता दरिया बन जाते हैं और ऊपर-ऊपर बहुत ही परिष्कृत और सुसंस्कृत होते हैं। जनता बेजान है; विशिष्टवर्ग कपटी है। जाति ने ऐसा बना दिया है ।
सभी कालें में जातियाँ थीं तो उनका अध्ययन करने का यहाँ प्रयास नहीं किया जा रहा है। जाति-प्रथा आज ऐसी है और, शायद, राष्ट्रीय पतन और जातिगत कठोरता के सभी जमानों में जैसी वह थी, केवल उसी से प्रयोजन है। एक मानी में जाति विश्वव्यापी तत्त्व है। जब श्री खुश्चेव ने आज के रूस में उच्च-शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की शारीरिक काम करने में आनाकानी पर अफसोस जाहिर किया तो उन्होंने उसकी जड़ की शुरुआत को खोल कर रख दिया। शारीरिक और बौद्धिक काम के बीच यह अन्तर करना और एक को नीचा और दूसरे को ऊँचा काम समझना, और इस अन्तर के बढ़ते हुए पेंच और स्थायित्व जाति को पैदा करते हैं। और किसी देश की बनिस्बत हिन्दुस्तान को जाति का अनुभव गहरा है और दुनिया उससे कुछ सीख सकती है। जातियों ने हिन्दुस्तान को भयंकर नुकसान पहुँचाया है और हिन्दुस्तान उनसे निजात कैसे पा सकता है, फिलवक्त हम इसी पर विचार करेंगे मूल्यों का पूरा निकम ही गड़बड़ा दिया गया है। ऊँची जातियाँ सुसंस्कृति पर कपटी हैं, छोटी जातियाँ थमी हुई और बेजान हैं। देश में जिसे विद्वता के नाम से पुकारा जाता है, वह ज्ञान के सार की अपेक्षा, सिर्फ • बोली और व्याकरण की एक शैली है। उदारता का मतलब हो गया है उसे संकुचित करके जाति और रिश्तेदारों के लिए उसका इस्तेमाल करना और उसके द्वारा अपना स्वार्थ साध लेना। शारीरिक काम करना भीख माँगने से ज्यादा लज्जास्पद समझा जाता है, क्योंकि कुछ ऊँचे किस्म के भिखमंगेपन के द्वारा दाता को परलोक में अमूल्य लाभ होता है। साफ सीधी बात और बहादुरी के गुणों के बजाय चालबाजी, सामने जो हुकुम और पीठ पीछे अवहेलना, राज्य के सफल व्यक्तियों की निशानी हो जाती है। झूठ को सार्वजनिक जीवन का सबसे बड़ा गुण बना दिया जाता है। धोखधड़ी का एक आम वातावरण बन जाता है, क्योंकि न्याय की और राष्ट्रीय कल्याण की रक्षा की अपेक्षा अपनी जाति के लोगों और रिश्तेदारों की रक्षा करना लक्ष्य बन जाता है। सार यह है कि
जाति की आवश्यकताएं राष्ट्रीय की आवश्यकताओं से भिड़ जाती हैं ।इस भिड़ंत में जाति जीत जाती है। क्योंकि विपत्ति में अथवा रोजमर्रा की तकलीफों में व्यक्ति की यही एकमात्र विश्वसनीय सुरक्षा है।