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वैश्विक महामारी कोरोना ने पिछले साल दुनियाँ को हिला के रख दिया था.अमेरिका ,इटली,ब्रिटेन, चीन ,फ्रांस जैसे शक्तिशाली राष्ट्रों को कोरोना के आगे घुटने टेकने पड़े.कोरोना को फैलाने का इल्जाम चीन के सर मढ़ा गया है.कोरोना की सुनामी की दूसरे लहर ने भारत को आज बहुत पीछे धकेल दिया है.क्या इस सुनामी को रोका जा सकता था,या इसकी रप्तार को कम किया जा सकता था?ताकि जनहानि के भयावह आंकड़ों को कम किया जा सके. एक कहावत है ‘सब राम भरोशे’वास्तव में भारत में लोगों की जिंदगी राम भरोसे है.
आज के इस लेख में मैं विस्तार से उन कारणों का उल्लेख करने वाला हूँ जिनके कारण कोविड-19 की दूसरी लहर ने देश को अपने गिरप्त में ले रखा है.साथ ही मोदी सरकार से लेकर अंधी आस्था का भी भंडाफोड़ होने वाला है जिनकी अनदेखी और अंधता के कारण आज देश के अस्पताल मुर्दा घर में तब्दील हो रहे हैं,और चारों तरफ चीखें ही चीखें और आँसुओं के सैलाब नजर आ रहे हैं.
कोरोना की सुनामी के गुनाहगार-
कोरोना की इस विकराल रूप को लाने में पहला गुनाहगार सरकार और उसके मुखिया हैं.
कोरोना की सुनामी (महामारी )के गुनाहगारों की पोल खोलने से पहले गालिब की ये पंक्तियाँ आज के परिप्रेक्ष्य में फिट बैठती हैं ग़ालिब ने दुःखी मन से लिखा था:-
‘हिंदुस्तान प्रबल झंझावतों और आग की लपटों से घिरा हुआ है.यहां के लोग किस नई व्यवस्था की तरफ उम्मीद और खुशियों से देखें’?
‘प्रजा की भलाई में ही राजा की भलाई है’चाणक्य नीति के ये बोल राजतंत्र के लिए तो फिट बैठते हैं,मगर लोकतंत्र में इसका उल्टा नजर आ रहा है,प्रजा की कठिनाई और पीड़ा में ही सत्तासीन लोगों की चांदी है.
बात करते हैं कोरोना की सुनामी के उन 4 गुनाहगारों की जिनकी अदूरदर्शिता और अज्ञानता या अंधता के कारण समूचा देश आज कोरोना महामारी के मुहाने पर खड़ा है.
सरकार,मोदी और रैलियां
लोकतंत्र में जनता के सुख-दुख का दायित्व सरकार का होता है.और सरकार का मुखिया प्रधानमंत्री होता है.शुरू में प्रधानमंत्री ने बहुत अच्छे सपने दिखाए ,15 लाख वाले नहीं वो तो चुनावी जुमला था.प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद मोदी जी ने बहुत महत्वाकांक्षी परियोजनाओं की बात कही जिनमें ,बुलेट ट्रेन,स्मार्ट सिटी,डिजिटल इंडिया,मेक इन इंडिया, और कैश लैस इंडिया आदि.लेकिन किया कुछ और अचानक नोट बन्दी कर दी और पूरा हिंदुस्तान लाइन में खड़ा कर दिया,तब भी लोगों की जानें गयीं थीं.इसके बाद टीम मोदी लग गयी भारत विजय के अभियान पर और हिन्दू राष्ट्र बनाने की राह पर.गगन चुंबी मूर्तियां और मन्दिर निर्माण में.130 करोड़ की आबादी वाले देश के प्रधानमंत्री को देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की खबर ही नहीं थी.खैर ये बातें इस वक्त गिनाना उचित तो नहीं है,मगर ये भी सत्य है कि कोई फोड़ा एकदम ही नासूर नहीं बन जाता है.अगर करंगे बात तो हर बात याद आएगी, और आप कहंगे ये राजनीति कर रहे हैं.कोरोना का प्रथम केस भारत में जनवरी 2020 में सामने आया था.इसी वक्त हमको सतर्क होने की जरूरत थी,मगर लाखों की भीड़ जमा कर गुजरात में ‘नमस्ते ट्रंप’ का जलसा इसी सरकार द्वारा किया गया.और एहतियाती कदम तत्काल नहीं उठाए गए.कोरोना का कहर बढ़ता गया. अन्ततः मार्च अंतिम सप्ताह में प्रधानमंत्री ने देश में लॉकडाउन लगाने की घोषणा की.उस वक्त भी अस्पतालों की कमियां,दवाओं की कमी,आक्सीजन की कमी,और मेडिकल की स्टाफ की भारी कमी महसूस हुई थी.भला हो कोरोना के प्रथम लहर का उसने इस साल का जैसा कहर नहीं बरपाया,वरना स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती.एक बात के लिए मोदी जी की प्रसंसा करनी होगी,कि पिछले कोरोना काल में भी चुनावी रथ को नहीं रुकने दिया.
कोरोना की सुनामी की पहली लहर थमी नहीं थी,कि ये खबर सामने आने लगी कि भारत में कोरोना का नया स्ट्रेन प्रवेश कर चुका है.जो पहले से ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है.लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय और सरकार ने इस ओर कोई फोकस नहीं किया.इस बार सरकार का फोकस था ‘बंगाल फतह’करना.ऐसा लग रहा था जैसे प्लासी के युद्ध को जीत जायंगे.जग जाहिर है कि कोरोना इंसान से इंसान में फैलता है,और इसके लिए सोशल डिस्टेंडिंग होना जरूरी है,मगर खुद प्रधानमंत्री इस चुनावी रथ पर सवार होकर लाखों की भीड़ को संबोधित कर रहे थे.और यही भीड़ बम विस्फोट की तरफ कोरोना को फैलाने में मददगार रही.
महाकुंभ का जमघट
अगर ये कहा जाए कि भारत कृषि प्रधान देश के साथ-साथ अंधविश्वास प्रधान देश है ,तो अतिश्योक्ति नहीं होगी .चूंकि धर्म और राजनीति अलग-अलग विषय हैं.आस्था निजी व्यक्ति का निजी विषय है,और राजनीति राज्य का विषय है.इतिहास गवाह है कि सोमनाथ मंदिर पर मुहम्मद गजनवी ने 17 बार आक्रमण किये,हमारी दिव्य शक्ति और आस्था इसको नहीं थाम सकी. ठीक यही हाल आज भी हो रहा है,कुम्भ में एक दिन में 13 से 15 लाख लोगों का जमावड़ा कोरोना को मुहम्मद गजनवी की तरह आक्रमण करने को न्यौता दे गया.कुम्भ को टाला जा सकता था,5 राज्यों के चुनाव देर से हो जाते तो कोई अंधेर नहीं हो जाता ,हमारा संविधान सब जटिल प्रकिर्याओं का समाधान देता है.मगर आस्था की डुबकी ने समूचे देश को कोरोना की सुनामी में डुबो दिया .ऐसी आस्था किस काम की जो विनास को आमंत्रित करती हो.गंगा सदा यहीं बहेगी, आपदा महामारी के वक्त जो सन्त और साधु प्रजा और देश हित में नहीं सोचते वो धार्मिक नहीं कहे जा सकते. चुनाव तो पांच राज्यों में
ही हो रहे थे,लेकिन कुम्भ में देश -विदेश के लोगों का जमावड़ा कोरोनकाल में देश को मुश्किल में डाल गया.
जनता की अज्ञानता-
लोकतंत्र में जनता और सरकार की बराबर भागीदारी होती है.जनता के पास लोकतन्त्र की चाबी होती है,और सत्ता पर किसको बैठाना है ये जनता ही तय करती है.मगर ये अफसोसजनक है कि भारत की जनता लोकतन्त्र में मात्र भीड़तंत्र का हिस्सा बन कर रह जाती है.कोरोना की पहली लहर के बीच जब धीरे-धीरे लॉक डाउन को हटाया गया ,लोगों की आवाजाही बड़ने लगी थी.मोबाइल में भी न0 डायल करने से पहले कोरोना की गाइडलाइन का पालन करने का संदेश दिया जा रहा था.’लॉक डाउन हटा है,कोरोना नहीं'”जब तक दवाई नहीं,तब तक ढिलाई नहीं”इस गाइडलाइंस का जनता ने कड़ाई से पालन नहीं किया.लॉक डाउन हटते ही लोग इतने बेफिक्र हो गए कि जनता ने न मास्क पहनना ही उचित समझा और न हीं सोसल डिस्टेंडिंग का खयाल जनता ने रखा.जिनको कोरोना नहीं हुवा था उनके लिए यह मात्र एक अफवाह था. अशिक्षा और जनता का अंधविश्वास इस वक्त के कोरोना की सुनामी के लिए सरकार के साथ-साथ बराबर की जिम्मेदार है.जनता अपनी जिम्मेदारी से हट नहीं सकती है.बारातों,पार्टियों में लोगों ने जमकर कोरोना प्रोटोकॉल का मजाक उड़ाया है,जिसका परिणाम खुद आज भुगत रहे हैं.कोरोना की सुनामी ने सारे सिस्टम की पोल खोल दी है.
मूकदर्शक चुनाव आयोग
चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है.कोविड-19 का पहला कहर खत्म नहीं हुआ था,और नए कोरोना स्ट्रेन की भारत में इंट्री हो चुकी थी.ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग को सभी राष्ट्रीय पार्टियों और प्रधान मंत्री के साथ एक सँयुक्त बैठक करनी चाहिए थी,कि क्या ऐसे हालातों में चुनाव कराना उचित होगा?पता नहीं चुनाव आयोग और सरकार के बीच कोई गुपचुप बात हुई हो?पांच राज्यो के विधानसभा चुनाव की घोषणा भी कर दी ,और दिलचस्प बात ये है कि बंगाल में आठ चरणों में मतदान कराया गया.इस वजह से ज्यादा रैलियां हुईं और ज्यादा जनसमूह एकत्रित हुवा जो कोरोना बम को फैलाने में भागीदार रहा है.
2 मई को चुनाव परिणाम भी आ जायंगे ,हो सकता है कई ऐसी जिंदगियां भी होंगी जिन्होंने ईवीएम में अपना वोट तो डाला होगा,मगर बदकिस्मती से जिस दिन ईवीएम खुलेगी वो वोटर कोरोना के मुंह में पहले ही समा चुके होंगे.लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने का परिणाम भविष्य के लिए खतरे की घण्टी है.सहर अंसारी के ये शब्द कलम उठाने को मजबूर कर गए:-“मैं झूठ को सच से क्यों बदलूँ,और रात को दिन में क्यों घोलूँ,क्या सुनने वाला बहरा है,क्या देखने वाला अंधा है”.
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