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बीसवीं सदी के महान दार्शनिक,आध्यात्मिक गुरु,चिंतक और क्रांतिकारी विचारक, ओशो के विचार 21वीं सदी के लिए काफी प्रासंगिक हैं.यद्यपि ओशो रजनीश ने हर धर्म,हर सम्प्रदाय, और हर धर्मगुरु पर कुछ न कुछ टिप्पणी अवश्य ही कि है, लेकिन गहनता से ओशो दर्शन को समझा जाये ,वे तथागत बुद्ध के काफी नजदीक होते हैं.भगवान बुद्ध ने कहा है “अप्पो दीपो भवः”अर्थात अपना दीपक स्वयं बनो.बुद्ध ने ध्यान को जीवन का अहम अंग माना और खुद भी उन्होंने ध्यान से ही ज्ञान की प्राप्ति की.सन्त ओशो ने तो ध्यान (Meditation)को शिखर तक पहुंचाया है.आज के इस आर्टिकल में बुद्धत्व पर ओशो के विचार क्या हैं,उस पर विस्तार से चर्चा करने वाले हैं.हिंदुत्व ने बुद्धत्व का भारत से लगभग सफाया ही कर डाला था,लेकिन ओशो रजनीश ने ध्यान की अहमियत को जिंदा किया और बुद्ध के विचारों को भी जिंदा किया.

बुद्धत्व पर ओशो के विचार:
भगवान बुद्ध को जीतनी गहराई से ओशो ने समझा और परखा है,सायद हिंदुस्तान में डॉ बाबा साहेब अंबेडकर के बाद किसी और ने समझा हो.बुद्धत्व के बारे में ओशो कहते हैं:-
“बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति एक अभिनेता ही है.वह इससे अन्यथा हो ही नहीं सकता.वह जानता है कि वह शरीर नहीं है,फिर भी वह इस तरह व्यवहार करता है.जैसे मानो वह शरीर ही हो.वह जानता है कि वह मन नहीं है ,फिर भी वह इस तरह उत्तर देता है,जैसे वह मन ही हो.वह जानता है कि वह न तो एक छोटा बच्चा है,न ही एक युवा और न एक वृद्ध व्यक्ति ही-न वह पुरुष है और न स्त्री, फिर भी वह इस तरह व्यवहार करता है ,जैसे कि वह वही है.
बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति को अभिनेता बनने की आवश्यकता नहीं है,अपने बुद्धत्व से ही वह अपने को अभिनेता पाता है और कोई दूसरा विकल्प वहां है ही नहीं.
ओशो के 6 चुनिंदा विचार
ओशो आधुनिक भारत के सबसे बड़े दार्शनिक और आध्यात्मिक सन्त हुए हैं.उन्होंने अन्य साधु -सन्तों,बाबाओं और धर्म गुरुओं की तरह ठगा नहीं,पाखण्ड और अंधविश्वास से हमेसा दूरी बनाई. उन्होंने वही कहा जो बुद्ध और झेन की वाणी थी.जानते हैं ओशो के कुछ thoughts.
तृप्ति ऐसे नहीं मिटती!
” तुम हमेशा ही दीन और रुग्ण रहोगे .तो इसका संबंध सिर्फ यौन से नहीं हो सकता. यौन इसका एक अंग मात्र है. एक पहलू है. और इसके अनंत पहलू हैं. यौन का मतलब होगा इस स्त्री से तृप्ति नहीं मिलती उस स्त्री से मिलेगी. उससे भी नहीं मिलेगी तो किसी और से मिलेगी. दौड़ जाओ, भाग जाओ तृप्ति कभी नहीं मिलेगी, न किसी स्त्री से मिलेगी, न किसी पुरुष से मिली है. ऐसे तृप्ति मिलती ही नहीं है. यह तो अतृप्ति की आग है . जिसमें तुम इधन डाल रहे हो. फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि इस मकान में तृप्ति मिलेगी या उस मकान में तृप्ति मिलेगी इतने धन से मिलेगी, या उतने धन से मिलेगी, इस पद से मिलेगी या उस पद से मिलेगी यह सब उसी वृक्ष की शाखाएं हैं”.
संयम पर ओशो के मंतव्य क्या है ;

“संयम पर ओशो के विचार कुछ इस तरह हैं- हमारे लिए संयम का अर्थ है- अपने से लड़ता हुआ आदमी; महावीर के लिए संयम का अर्थ है- अपने साथ से राजी हुआ आदमी. हमारे लिए संयम का अर्थ है अपनी वृत्तियों को संभालता हुआ आदमी ; महावीर के लिए संयम का अर्थ है- अपनी वृतियों का मालिक हो गया जो. संभालता वही है, जो मालिक नहीं है. संभालना पड़ता ही इसलिए है कि वृतियां अपनी मालकियत रखती हैं. लड़ना पड़ता इसीलिए है कि आप वृत्तियों से कमजोर हैं. अगर आप वृत्तियों से ज्यादा शक्तिशाली हैं तो लड़ने की जरूरत नहीं रहती. वृतियां अपने से गिर जाती हैं .महावीर के लिए संयम का अर्थ है -आत्मवान ,इतना आत्मवान कि वृत्तियां उसके सामने खड़ी भी नहीं हो पाती .आवाज भी नहीं दे पाती .उसका इशारा पर्याप्त है. ऐसा नहीं है कि उसे क्रोध को दबाना पड़ता है, ताकत लगाकर.
क्योंकि जिसे ताकत लगाकर दबाना पड़े, उससे हम कमजोर हैं ।और जिसे हमने ताकत लगाकर दबाया है, उसे हम कितना ही दबाएं, हम दबा न पाएंगे. वह आज नहीं कल टूटता ही रहेगा, फूटता ही रहेगा, बहता ही रहेगा. महावीर कहते हैं: संयम का अर्थ है- आत्मवान इतना आत्मवान है व्यक्ति कि क्रोध क्षमता नहीं जुटा सकता कि उसके सामने आ जाए”.
संतुलन क्या है जानें ओशो के शब्दों में
वैज्ञानिक पहले सोचते थे कि यह जो सूर्य है हमारा, यह जलती हुई अग्नि है. लेकिन अब वैज्ञानिक कहते हैं कि सूर्य अपने केंद्र पर बिल्कुल शीतल है. यह बहुत हैरानी की बात है. चारों अग्नि का इतना वर्चुअल है, सूर्य अपने केंद्र पर सर्वाधिक शीतल बिंदु है. और उसका कारण अब ख्याल में आना शुरू हुआ है .
क्योंकि जहां इतनी अग्नि है, उसको संतुलित करने के लिए इतनी ही गहन शीतलता केंद्र पर होनी चाहिए ,नहीं तो संतुलन टूट जाएगा.
ठीक ऐसी ही घटना तपस्वी के जीवन में घटती है. चारों ओर ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है, लेकिन उस उत्पत्ति उर्जा को संतुलित करने के लिए केंद्र बिल्कुल शीतल हो जाता है .इसलिए तप से भरे व्यक्ति से ज्यादा शीतलता का बिंदु इस जगत में दूसरा नहीं है, सूर्य भी नहीं .इस जगत में संतुलन अनिवार्य है. असंतुलन —-चीजें बिखर जाती हैं.
आचार्य का अर्थ
वह जिसने पाया भी और आचरण से प्रकट भी किया .आचार्य का अर्थ है:- जिसका ज्ञान और आचरण एक है. ऐसा नहीं है कि सिद्ध का आचरण ज्ञान से भिन्न होता है. लेकिन शुन्य हो सकता है. वहीं आचरण सुनने ही हो जाए ऐसा भी नहीं है कि अरिहंत का आचरण भी न होता है लेकिन अरिहंत इतना निराकार हो जाता है कि आचरण हमारी पकड़ में आएगा हमें फ्रेम चाहिए जिसमें पकड़ में आ जाए आचार्य से शायद हमें निकटता मालूम पड़ेगी उसका अर्थ है जिसका ज्ञान आचरण है क्योंकि हम ज्ञान को तू ने पहचान पाएंगे आचरण को पहचान लेंगे।
विज्ञान और वैभव पर ओशो के विचार
तंत्र का एक अद्भुत ग्रंथ है, विज्ञान भैरव .उसमें शंकर ने पार्वती को ऐसे सैकड़ों प्रयोग कहे हैं.
हर प्रयोग दो पंक्तियों का है. हर प्रयोग का परिणाम वही है कि बीच का गैप आ जाए. शंकर कहते हैं -श्वास भीतर जाती है. श्वास बाहर जाती है पार्वती, तू दोनों के बीच में ठहर जाना तो तू स्वयं को जान लेगी. जब स्वास बाहर भी न जा रही हो और भीतर भी नहा रही हो, तब तू ठहर जाना, बीच में, दोनों के. किसी से प्रेम होता है, किसी से घृणा होती है, वहां ठहर जाना जब प्रेम भी न होता और घृणा भी नहीं होती; दोनों के बीच में रह जाना. तू स्वयं को उपलब्ध हो जाएगी. दुख होता है, सुख होता है; तू वहां ठहर जाना जहां न दुख है न सुख ;बीच में, मध्य में और तू ज्ञान को उपलब्ध हो जाएगी.
आज्ञा का अर्थ
ओशो के विचार के अनुसार आज्ञा का क्या मतलब होता है ?जानते हैं- आज्ञा का अर्थ है जो एब्सर्ड मालूम पड़े, जिसमें कोई संगति न मालूम पड़े. क्योंकि जिस में संगति मालूम पड़े, आप मत सोचना, आपने आज्ञा मानी. आपने अपनी बुद्धि को माना. अगर मैं आपसे कहूं, कि दो और दो चार होते हैं, यह मेरी आज्ञा है, और आप कहें, बिल्कुल ठीक, मानते हैं आपकी आज्ञा ,दो और दो चार होते हैं. आप मुझे नहीं मान रहे हैं, आप अपनी बुद्धि को मान रहे हैं.दो और दो पांच होते हैं और आप कहे कि दो और दो पांच होते हैं, तो आज्ञा.
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संदर्भ:ओशो वर्ल्ड,मन,सजगता और साक्षीभाव।